अगर कोई है सच्चा भक्त, तो भगवान या गुरु कैसे ढूंढ़ लेते हैं अपना शिष्य ओशो,
अगर कोई है सच्चा भक्त, तो भगवान या गुरु कैसे ढूंढ़ लेते हैं अपना शिष्य
ओशो ,
अगर आपमें शिष्य बनने की योग्यता है, तो आपको गुरु की खोज नहीं करनी पड़ेगी। सद्गुरु आपको स्वयं ढूंढ़ लेंगे। यदि आप सद्गुरु को ढूंढ़ने की कोशिश करेंगे, तो हो सकता है कि सही व्यक्ति तक न पहुंच पाएं, क्योंकि आप अपनी धारणा के अनुसार गुरु की खोज करेंगे। लेकिन जो सद्गुरु होता है, वह किसी धारणा या खांचे से परे होता है। एक मित्र ने पूछा है कि सद्गुरु की खोज हम अज्ञानी जन कर ही कैसे सकते हैं?
यह थोड़ा जटिल सवाल है और समझने योग्य। निश्चय ही, शिष्य सद्गुरु की खोज नहीं कर सकता है। कोई उपाय नहीं है आपके पास जांचने का कि कौन सद्गुरु है। और संभावना इसकी है कि जिन बातों से प्रभावित होकर आप सद्गुरु को खोजें, वे बातें ही गलत हों।
आप जिन बातों से आंदोलित होते हैं, आकर्षित होते हैं, सम्मोहित होते हैं, वे बातें आपके संबंध में बताती हैं; जिससे आप प्रभावित होते हैं उसके संबंध में कुछ भी नहीं बतातीं। यह भी हो सकता है और अकसर होता है कि जो दावा करता हो कि मैं सद्गुरु हूं, वह आपको प्रभावित कर ले। एक मुश्किल में डालने वाली बात यह है कि जो सद्गुरु है, वह शायद ही ये होने का दावा करे। और बिना दावे के तो हमारे पास कोई उपाय नहीं है पहचानने का। हम चरित्र की सामान्य नैतिक धारणाओं से प्रभावित होते हैं, पर सद्गुरु हमारी चरित्र की सामान्य धारणाओं के पार होता है। और अकसर ऐसा होता है कि समाज की बंधी हुई धारणा जिसे नीति मानती है, सद्गुरु उसे तोड़ देता है, क्योंकि समाज मानकर चलता है अतीत को और सद्गुरु का अतीत से कोई संबंध नहीं होता। समाज मानकर चलता है सुविधाओं को और सद्गुरु का सुविधाओं से कोई संबंध नहीं होता।
तो यह भी हो जाता है कि जो आपकी नैतिक मान्यताओं में बैठ जाता है, उसे आप सद्गुरु मान लेते हैं। संभावना बहुत कम है कि सद्गुरु आपकी नैतिक मान्यताओं में बैठे, क्योंकि महावीर नैतिक मान्यताओं में नहीं बैठ सके, उस जमाने की। बुद्ध नहीं बैठ सके, कृष्ण नहीं बैठ सके, क्राइस्ट नहीं बैठ सके। जो छोटे-छोटे तथाकथित साधु थे, वे बैठ सके। अब तक इस पृथ्वी पर जो भी श्रेष्ठजन पैदा हुए हैं, वे अपनी समाज भी मान्यताओं के अनुकूल नहीं बैठ सके। क्राइस्ट नहीं बैठ सके अनुकूल, लेकिन उस जमाने में बहुत से महात्मा थे, जो अनुकूल थे। लोगों ने महात्माओं को चुना, क्राइस्ट को नहीं, क्योंकि लोग जिन धारणाओं में पले हैं, उन्हीं धारणाओं के अनुसार चुन सकते हैं।
सद्गुरु का संबंध होता है सनातन सत्य से। समय का जो सत्य है, उससे संबंधित होना एक बात है; शाश्वत जो सत्य है, उससे संबंधित होना बिलकुल दूसरी बात है। समय के सत्य रोज बदल जाते हैं, रूढ़ियां रोज बदल जाती हैं, व्यवस्थाएं रोज बदल जाती हैं। दस मील पर नीति में फर्क पड़ जाता है, लेकिन धर्म में कभी भी कोई फर्क नहीं पड़ता।
इसलिए अति कठिन है पहचान पाना कि कौन है सद्गुरु। फिर हम सबकी अपने मन में बैठी व्याख्याएं हैं। धारणाएं हमारी हैं, और कोई सद्गुरु धारणाओं में बंधता नहीं। बंध नहीं सकता। फिर हम एक सद्गुरु के आधार पर निर्णय कर लेते हैं कि सद्गुरु कैसा होगा। सभी सद्गुरु बेजोड़ होते हैं, अद्वितीय होते हैं, कोई दूसरे से कुछ लेना-देना नहीं होता।
यहां जरा और बारीक बात है। जिस तरह मैंने कहा कि शिष्य का अहंकार होता है और इसलिए उसे ऐसा भास होना चाहिए कि मैंने चुना। उसी तरह असद्गुरु का अहंकार होता है, उसे इसी में मजा आता है कि शिष्य ने उसे चुना। असद्गुरु आपको नहीं चुनता। सद्गुरु आपको चुनता है। असद्गुरु कभी आपको नहीं चुनता। इसलिए आप चुनने की बहुत फिक्र न करें, खुलेपन की फिक्र करें। सम्पर्क में आते रहें, लेकिन बाधा न डालें, खुले रहें।
मिस्र के साधक कहते हैं, ‘जब शिष्य तैयार होता है, गुरु उपस्थित हो जाता है’और आपकी तैयारी का एक ही मतलब है कि जब आप पूरे खुले हैं, तब आपके द्वार पर वह आदमी आ जाएगा, जिसकी जरूरत है, क्योंकि आपको पता नहीं है कि जीवन एक बहुत बड़ा संयोजन है। आपको पता नहीं है कि जीवन के भीतर बहुत कुछ चल रहा है, पद की ओट में।
जीसस को जिस व्यक्ति ने दीक्षा दी, वह था जॉन द बैप्टिस्ट, बप्तिस्मा वाला जॉन। बप्तिस्मा वाला जॉन एक बूढ़ा सद्गुरु था, जो जॉर्डन नदी के किनारे चालीस साल से निरंतर लोगों को दीक्षा दे रहा था। बहुत बूढ़ा और जर्जर हो गया था, और अनेक बार उसके शिष्यों ने कहा कि अब बस, अब आप श्रम न लें। लाखों लोग इकट्ठे होते थे उसके पास। जीसस के पूर्व बड़े से बड़े गुरुओं में वह एक था।
लेकिन बप्तिस्मा वाला जॉन कहता है कि मैं उस आदमी के लिए रुका हूं, जिसे दीक्षा देकर मैं अपने काम से मुक्त हो जाऊंगा। जिस दिन वह आदमी आ जाएगा, उसके दूसरे दिन तुम मुझे नहीं पाओगे, और फिर एक दिन आकर जीसस ने दीक्षा ली, और उस दिन के बाद बप्तिस्मा वाला जॉन फिर कभी नहीं देखा गया। शिष्यों ने उसकी बहुत खोज की, उसका कोई पता न चला कि वह कहां गया। उसका क्या हुआ।
सद्गुरु एक चुम्बक है, आप खिंचे चले जाएंगे। आप अपने को खुला रखना। फिर यह भी जरूरी नहीं है कि सब सद्गुरु आपके काम के हों। असद्गुरु तो काम का है ही नहीं। सभी सद्गुरु भी काम के नहीं हैं, सद्गुरु वह है जिससे आपकी भीतरी रुझान ताल-मेल खा जाए। तो आप खुले रहना।
ओशो नमन
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