दिव्य प्रेम (divine love)

 मैंने सुना है, एक आदमी की शादी हुई। वह जिंदगी में रोज ही शराब पीता रहा था। शादी के बाद भी दो वर्ष तक शराब पीता रहा। रोज ही पीता था, पत्नी को खयाल ही न आया। जब कभी-कभी कोई शराब पीता है तो पता चलता है। रोज ही पीता था। पत्नी ने पहले दिन से ही उसके मुंह में वही बास देखी थी, वह समझी इसी की बास होगी। रोज वही चलता था। एक दिन उसने शराब न पी और वह घर आया। तो पत्नी को बड़ा गड़बड़ मालूम पड़ा। रोज के हिसाब से गड़बड़ था। उसने कहा, क्या बात है, क्या आज शराब पीकर आ गये हो? हाथ-पैर लड़खड़ाते हैं। उस आदमी ने कहा देवी, मैं रोज पीकर आता रहा हूं। आज ही नहीं पी, यह गलती हो गयी। मुझे खुद ही अपने हाथ-पैर गड़बड़ मालूम पड़ रहे हैं। वह रोज पीकर आता था तो एक व्यवस्था थी, एक ढंग था, एक आदत थी, एक जिंदगी का अपना रूप था। एक दिन छोड़ दी है तो गड़बड़ हो गयी है।


हम सारे लोग भी जिंदगी से भागे हुए लोग हैं और हमारे बीच में जब कभी कोई एक जिंदगी से लौटता है तो हम कहते हैं, कहां जा रहे हो जिंदगी को छोड़कर! और हम सब जिंदगी से भागे हुए लोग हैं। जिसे हम जिंदगी कह रहे हैं, वह जिंदगी नहीं है। अगर वही जिंदगी होती तो हमारी आंखें आनंद से भर गयी होतीं। अगर वही जिंदगी होती तो किसी मंदिर में हम परमात्मा को खोजने न गये होते। हमें जिंदगी में वह मिल गया होता। अगर वही जिंदगी होती तो हम पूछते न कि शांति का रास्ता क्या है? आनंद का रास्ता क्या है? वह हमने पा ही लिया होता। अगर वही जिंदगी होती तो ईश्वर के संबंध में हम बात न करते क्योंकि ईश्वर हमें मिल ही गया होता। लेकिन नहीं कुछ हमें मिला–न कोई सौंदर्य, न कोई सत्य, न कोई संगीत, न जीवन में कोई रस, न कोई आनंद–लेकिन फिर भी इसको हम कहते हैं जिंदगी।


अगर यही जिंदगी है तो फिर मौत क्या हो सकती है? सिर्फ सांस लेने का नाम जिंदगी है? सिर्फ रोज सुबह उठ आने का नाम जिंदगी है? सांझ सो जाने का नाम जिंदगी है? रोज खाना पचा लेने का और खाने को शरीर के बाहर फेंक देने का नाम जिंदगी है? अगर यही जिंदगी है, तब तो ठीक है। लेकिन इतनी-सी जिंदगी से कोई राजी नहीं है। जिंदगी में और फूलों की अपेक्षा है। जो कभी खिलते हुए मालूम नहीं पड़ते। लेकिन फिर भी हमें शक नहीं आता। शक न आने का कारण यह है कि आसपास हमारे जैसे ही लोग हैं। शक का कोई सवाल नहीं है। जैसे चारों तरफ लोग जी रहे हैं, वैसे ही हम जी रहे हैं। जैसे सारे लोग जी रहे हैं, वही जिंदगी का ढंग मालूम पड़ता है। इसलिए अक्सर ऐसा हुआ है कि हमारे बीच जो आदमी जिंदगी की तरफ गया है वह हमें उल्टा मालूम पड़ता है कि हमसे उल्टा जा रहा है। कोई सुकरात या कोई कृष्ण या कोई बुद्ध हमें उल्टा मालूम पड़ता है। हमारी जिंदगी छोड़कर कहां जा रहे हो? हम जिंदा रह रहे हैं, तुम भाग कहां रहे हो? अगर हम जिंदा हैं, और यही जिंदगी है तो मैं कहूंगा, कि वे भागने वाले ही ठीक हैं। वे हमसे वृहत्तर जिंदगी को उपलब्ध हो जाते हैं। कहां है बुद्ध की शांति हमारी जिंदगी में, और कहां है कृष्ण का आनंद, कहां है लाओत्से का रस? हमारी जिंदगी में नहीं है।

ओशो

टिप्पणियाँ